सोमवार, 23 अप्रैल 2012

अभिशप्त






 
कृषक तू अभिशप्त है , तड़पने को
धूप में जलने को, पाई-पाई जोड़ने को
फिर उसे खाद बीज में खर्च करने को
हर रोज अपना खून पसीना बहाने को,
पर उसका नगण्य प्रतिफल पाने को
हे कृषक तू अभिशप्त है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू गाँव में रहता है
तू देहाती है, तू गँवार है
मानवी जोंकों से अनभिज्ञ तू
उनसे शोषित होने को लाचार है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू अपने बच्चों को
नहीं बनाता काला अंग्रेज
नहीं लगाता उन्हें कृत्रिमता की लत
नहीं बदलता उनका भेस

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू सिर्फ फसल उगाता है
तू बाजार नहीं बनाता अपनी फसल का
फसल तेरी होती है, दाम किसी और का
और तू हाथ मलता रह जाता है

तू अभिशप्त है
गरीबी में जीने को, बस खटते रहने को
ताकि पूंजीपति अमीरी में जी सकें
ताकि ये जोंकें आराम कर सकें
ताकि ये तुम्हारी जमीनें छीन सकें
उन पर जबरदस्ती आवास बना कर बेंच सकें

तू अभिशप्त है
क्योंकि तेरा विरोध भी मुखर नहीं है
क्या खाकर तू विरोध करेगा
विरोध पर गोलियाँ मिलती हैं तुझे
तेरा कुचला हुआ सर "आगरा" या "टप्पल" में कहीं है

तू अभिशप्त है
क्योंकि तू मीडिया के लिये कोई  खबर नहीं है
कितनी भी कर ले आत्महत्यायें "विदर्भ" हो या बुन्देलखण्ड
कोई नहीं पसीजेगा इतना याद रख
क्योंकि तू नेता नहीं, डाक्टर या इंजीनियर नहीं है

तू अभिशप्त है
बाजार का मोहरा बनने को,
चुनावी मुद्दा बनने को,
बीबी के लिये नाम का आसरा बनने को,
बच्चों के लिये झुका हुआ कंधा बनने को
हे कृषक तू अभिशप्त है

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

सूद-मूल

जिन लोगों ने कभी ब्याज(सूद) पर कर्ज लिया या दिया होगा उन्हें यह भली प्रकार पता होगा कि लेनदार को मूलधन से कहीं ज्यादा ज्यादा फ़िक्र ब्याज की होती है| आप उसका मूलधन भले बीस साल बाद लौटायें, उसको कोई दिक्कत न होगी पर यदि सूद के भुगतान में जरा भी देरी हुई तो उसकी त्योरियाँ चढ़ जाती हैं| सूद तो उसे लगातार चाहिये, इसके क्रम में रुकावट उसे स्वीकार्य नहीं|


        क्या आप इस सूद-लोभ की प्रवृत्ति को मानवीय संबंधों व आपसी रिश्ते-नातों में कहीं देख पाते हैं? अगर आप गौर करें तो आपको पता चलेगा कि आप इसको रोज अनुभव करते हैं| इसको अनुभव करने के लिये आपको किसी का लेनदार या देनदार होने की जरूरत नहीं है, बस अपने आसपास के परिवारों एवं खुद अपने भी परिवार में नजर दौड़ाएं तो आप को कई सूद लोभी अपने सूद  के साथ किलोलें करते नजर आ जायेंगे|
      
           जी हाँ, आप बिलकुल सही सोच रहे हैं| यहाँ बात चल रही है दादा-दादियों और उनके पोते-पोतियों की| दादा अपने पुत्र(मूलधन) से कितना भी नाराज हो जाये पर पोता(सूद) उसे हमेशा ही अत्यन्त प्रिय होता है| बल्कि अधिकतर तो यह देखा गया है कि पुत्र से जितना अधिक मतभेद होता है, जितनी ज्यादा नाराजगी बढ़ती है, उसी अनुपात में पोते से प्रेम भी बढ़ता जाता है| पुत्र से मनमुटाव होने पर दादा अपने नन्हे पोते में अपने पुत्र के उस बचपन को ढूँढता है जब वह अपने पुत्र की एक एक मुस्कान के लिये कुछ भी करने को तैयार रहा करता था| पोते में वो अपना वो पुत्र ढूँढता है जो बहुत आज्ञाकारी हुआ करता था| इधरउधर की वैचारिक बहसों से थके हुये दादा-दादी को जब विशुद्ध प्रेम की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहले वे अपने पोते-पोतियों की ओर मुख करते हैं|


        ऐसे किस्से भी अक्सर सुनने को मिलते हैं कि दादा ने अपना सर्वस्व अपने नाबालिग पोते के नाम कर दिया क्योंकि वो अपने पुत्र से नाराज चल रहे थे| जबकि यह सबको पता है कि अंततः वह सम्पत्ति पुत्र के ही अधिकार में होगी पर क्या करें, यही तो सूद लोभ है| वो दादा-दादी जो अपने पुत्र-पुत्रियों से वर्षों दूर रह लेते हैं वो भी अपने पोते-पोती को कुछ दिन के लिये भी दूर नहीं होने देना चाहते| और यदि अपरिहार्य कारणों से उन्हें दूर होना भी पड़ा तो उसे याद करके ममता में आँसू भी बहाया करते हैं| इसे कहते हैं सूद लोभ|


       पर आजकल आधुनिक होने की जंग में इन सूद लोभियों से इनका सूद छिनता जा रहा है| यह छिनैती निजी स्वतंत्रता के नाम पर एकल परिवारों के गठन के फलस्वरूप हो रही है| आधुनिक परिवारों में दादा-दादी नाम के प्राणियों को माता-पिता संभाल नहीं पा रहे हैं(या संभालना ही नहीं चाहते) जिसकी कीमत पोते-पोतियों को भी चुकानी पड़ रही है| उन्हें अपने माता-पिताओं पर होने वाला व्यय भार लगता है पर वो ये नहीं समझते हैं कि सामाजिकता व सांसारिकता का जो पाठ अपने पोते-पोतियों को दादा-दादी पढ़ा सकते हैं वो संसार का कोई विश्वविद्यालय नहीं पढ़ा सकता|


            आज के बालकों व युवकों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई सबसे बड़ा कारण है तो वह यही है कि इनमें से ज्यादातर को अपने दादा-दादी के बहुमूल्य प्यार, आशीर्वाद और ज्ञान से वंचित रखा गया है| वो बच्चे बड़े ही अभागे होते हैं जिन्हें अपने दादा-दादी या इनमें से किसी एक का स्नेहपूर्ण सान्निध्य नहीं मिलता और इसकी कमी जीवन भर खलती है|


           आज यह समाज की महती आवश्यकता है कि इन सूद लोभियों का संरक्षण हो ताकि समाज स्वस्थ बना रहे| 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मील के पत्थर

ना तो मैं हताश हूँ, ना ही मैं निराश हूँ|
पर अपनी कमरफ्तारी पर, थोड़ा सा उदास हूँ||

कुछ कमी है रौशनी की अभी, रास्ते भी कुछ धुंधले से हैं|
कभी दूर हूँ मैं रास्ते से, तो कभी रास्ते के पास हूँ ||

कर रहा है प्रश्न निरंतर, ये विचारों का अस्पष्ट प्रवाह|
किसी की तलाश में हूँ मैं, या खुद किसी की तलाश हूँ ||

गतिमान है प्रबल संघर्ष, कामनाओं के ज्वार-भाटे से|
इच्छाओं पर अंकुश है मेरा, या कामनाओं का दास हूँ||

चेहरा तो एक ही है मेरा, इन्सान बहुत से हैं अंदर|
कभी कृष्ण की मुरली हूँ, कभी कंस का अट्टहास हूँ||

यूँ तो आम आदमी हूँ, इक आम जिन्दगी जीने वाला|
पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके लिये मैं खास हूँ||

माना कि कदम धीमे हैं, पर सफर अभी जारी है|
इसमें कोई आश्चर्य नहीं, कि मील के पत्थर तलाश लूँ||

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

सूखे दरख़्त







जंगल अब कुछ बदल रहा है ,
अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है ,
एक हिस्सा खुद को सहेज रहा है ,
परिवर्तन की बयार में संभल रहा है |
दूसरा हिस्सा हावी होने के लिए ,
आसमान को छूने के लिए
शिद्दत से मचल रहा है ||

एक हिस्सा है सूखे दरख्तों का ,
दूसरा उनके बाल-बच्चों का |
एक हिस्सा है पुराने , जीर्ण वृक्षों का ,
दूसरा उनसे पनपे नए पौधों का ||

सूखे दरख्त , नए वृक्षों के अनुसार
बोझ हैं , समस्या हैं , प्रगति में बाधक हैं |
रुढियों और परम्पराओं से चिपके हुए
ये प्रगति-मार्ग के अवरोधक हैं ||


नयी पौध इसी उधेड़बुन में परेशान है
कि इन सूखे दरख्तों की समस्या का क्या समाधान है |
नयी पौध में कुछ पौधे तो, अत्यधिक विद्वान हैं
उनके पास इस विकट समस्या का भी समाधान है ||

ये समाधान कुछ यूं है कि
इन्हें इनके हकों से वंचित कर दो , महरूम कर दो ,
सूखे तो हैं ही , झुलसने पर भी मजबूर कर दो ||

एक नई जगह बनाओ ,
बनाओ एक नई व्यवस्था ,
जहाँ सभी सूखे दरख्त ,
मिलकर रहें इकठ्ठा ||

हरियाली के बीच में से ,
इन ठूंठों को हटा दो ,
इन्हें मुख्यधारा से दूर ,
कहीं ठूँठघर में बसा दो ||

इन इरादों की भनक बुजुर्गों तक भी पहुंची
कुछ चिंतित हुए , कुछ विस्मित हुए ,
कुछ को लगा यह दोष है भाग्य का
तो कुछ परवरिश के तौर-तरीकों पर शंकित हुए ||

नयी पौध भूल गई है शायद ,
कभी इन सूखे दरख्तों में भी हरियाली थी |
भूल रहे हैं कि जिसकी वो शाख हैं
कभी उसमें भी हरे भरे पत्ते थे ,
जिंदगी की लाली थी ||

कभी उसकी छाँव में ही ,
इनका बचपन बीता था |
कभी उसी ने इनको अपने ,
स्नेह अश्रु से सींचा था ||

सर्दी , बारिश , आँधी आदि से
उसने ही इन्हें बचाया था ,
एक नन्हे से बीज को ,
एक विशाल वृक्ष बनाया था |
जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
कैसे डटे रहें दृढ़ता से ,
ये भी उसने ही सिखलाया था ||

भूल रहे हैं कि उस सूखे दरख़्त की जड़ों में
आज भी कोई जिन्दा है |
शायद नयी पौध के वैचारिक पतन पर
खुद को दोषी मान कर
खुद पर ही शर्मिंदा है ||

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

धीरज रखो प्रिये

यूँ रूठो मत, तुम नाराज न हो !
छोड़ो खफ़गी, जरा सुन तो लो !!
मैं मारा-मारा फिरता हूँ, अफसरों की खुशामद करता हूँ !
करता हूँ मेहनत किसके लिये प्रिये, बोलो किसके लिये ?
तुम्हारे लिये, सिर्फ तुम्हारे लिये !!

मैं सम्पूर्ण तुम्हारा हूँ, यह घर-बार भी तो तुम्हारा है !
पहली तारीख के वेतन पर, पूरा अधिकार तुम्हारा है !!
तुम्ही स्वामिनी घर की हो, तुम जैसे चाहो खर्च करो !
कहाँ और किससे मिलता हूँ, चाहो तो पूरा सर्च करो !!
किसकी मजाल जो बोल सके, बंदा गुलाम तुम्हारा है !
पर अभी जरा सी तंगी है, थोड़ा सा धीरज रखो प्रिये !!

चुन्नू की फीस भी बाकी है, और मुन्नू को हो रही खांसी है !
चुन्नू की फीस भर लूँ पहले, मुन्नू की दवाई कर लूँ पहले !!
बाबूजी का जो चश्मा टूटा है, वो चश्मा भी तो बनवाना है !
अम्मा जी का सर दुखता है, उसका इलाज भी करवाना है !!
फिर तुम्हें बनारस की साड़ी दिलवाऊंगा, धीरज रखो प्रिये !
फिर तुम्हारे कंगन-झुमके भी बनवाऊंगा, धीरज रखो प्रिये !!

बरसात भी आने वाली है, और छत की हालत निराली है !
टपकती है हलकी बारिश में भी, शायद ये गिरने वाली है !!
इसकी मरम्मत करवा लूँ पहले, ये काम भी तो जरूरी है !
खिड़की के टूटे शीशे लगवा लूँ पहले, ये भी तो जरूरी है !!
मैं गर्व से कहता हूँ तुमको, वाह....ऐसी मेरी घरवाली है !
फिर तुम्हें सर से पाँव तक सजाऊँगा, धीरज रखो प्रिये !!