बुधवार, 12 नवंबर 2014

मैं तुम्हें पुकारता हूँ

कभी अपनी मुस्कुराहट के बीच,
कभी आँसुओं के साये में
मैं तुम्हें पुकारता हूँ

वो पुकार कभी गुम हो जाती है
कभी तुम तक पहुँच जाती है
कभी गूँजती है मैदानों में
कभी टकराकर लौट आती है 


तुम आओ या न आओ
काफ़ी है बस ये एहसास
कि मैंने तुम्हें पुकार लिया
अपने हर दुःख में
और शामिल किया हर सुख में

ये पुकार एक तसल्ली है
झूठी ही सही पर
इसके होने से
तुम्हारे न होने का
खालीपन कम होता है

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