शनिवार, 18 जून 2016

जमाना कहता है मुझको पागल सा

वो गर्मियों की अलसाई साँझ औरआसमान पर लहराता हुआ छोटा सा टुकड़ा बादल का

उसकी छाँव में टहलते बच्चे खेलने जाते हुये, खेलकर आते हुये माथे पर ठहरा है पसीना हल्का सा

गिरधारी चचा के बाग़ में बैठी
कुहू कुहू करती कोयल
रंग है जिसका काजल सा

साथ में पढ़ी किताबों के पन्ने
जिनमें गुलाब की पंखुडियां रखी थीं
जिनमें खुशबु है बीते कल की

अक्सर ये सब देखते सोचते
कहीं खो जाता हूँ मैं
और जमाना कहता है मुझको पागल सा

:: अवनीश कुमार